आत्मनिर्भर ?

कागजी मौसम गुलाबी है, सरकारी बागों में बहार है
सेवा की बाते किताबी है,वादों के घनघोर फुहार है।
मीलो मील राह चलते रहे लेकिन दूरी नही घटती
घोषणाओं के अंबार लगे , लेकिन भूख नही मिटती
बिलखता बचपन रो रहा,नन्हों पर हुआ ये प्रहार है
कागजी मौसम गुलाबी है, सरकारी बागों में बहार है


देश के वो कंधे जो,  देश को थे संभालते
धरा पर है गिरे हुए एक निवाले को तलासते
वीर थे जो अर्थशास्त्र के,आज अर्थ को निकालते
चल रहे जेठ धूप में , वजूद को अपने खंगालते
फाइलों में जो दिख रही जो खुशियां वो बेशुमार है
कागजी मौसम गुलाबी है, सरकारी बागों में बहार है

पाशो से मिट रही आज उनके किस्मत की लकीर है
अंधेरा है आंखों में,दिखती एक धुंधली सी तस्वीर है
रोटियां बिखेरी पटरियों पर मौत की मण्डियां सजा
नज़र आ रहा दोषी वही जो झोले वाला फकीर है।
मौत राह चल रही साथ मे, हो रहा एक नरसंहार है
कागजी मौसम गुलाबी है, सरकारी बागों में बहार है

भर रहा  वो खुद की झोलिया जिन्दगी सिसक रही
पहरे मौत के इन रास्तो में देख मंजिले  ठिठक रही
पूछता न कोई दर्द इनके, देखता न कोई  बेबसी
ये सुन रहे खोखले वादे,अब जिंदगी है खिसक रही
ढो रहा कांधे पर सबको बोझ ही बोझ का अंबार है
कागजी मौसम गुलाबी है, सरकारी बागों में बहार है

मर रहा कुचल रहा , फिर भी बेधड़क वो आगे बढ़ रहा
गिर रही है सांसे चलती, उम्मीद का शिखर वो चढ़ रहा
तोड़ आ रहा है वो  सोते इस वजीर का नशा
हौसलों से नाप रहा वो रास्ते ,चढ़ रहा एक पहाड़ है
कागजी मौसम गुलाबी है, सरकारी बागों में बहार है



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