1947 में बंटवारे के समय कुछ मूर्खो ने दंगो में शामिल होकर, अपने ही भाइयो को मार काट कर देश के दुश्मनों की भरपूर मदद किया था। आज फिर उसी तरह के कुछ मूर्ख साम्प्रदायिकता फैला कर देश के दुश्मनों की मदद कर रहे है। ये ऐसा प्रभाव है जो देश को तबाह कर देगा। एक ऐसा घाव देगा जो देश को अपंग और अधमरा बना देगी। इस घाव को भरते भरते देश की आम वाली पीढ़ियों की नश्लो की नश्ले तबाह हो जाएंगी, फिर भी ये जहर बेअसर नही होगा। आज़ादी के पहले से जी देश मे बंटवारे और साम्प्रदायिकता के बीज बोने वाले दो गुनाहगारो जिन्ना और सावरकर आज भी हमारे देश के कई लोगो मे जिंदा है, और ये बिल्कुल अपने "क़ायदे आज़म" और अपने "वीर" की तरह देश को उसी मारकाट और उसी हैवानियत के दौर में ले जाने को इच्छुक है।

ये वो दौर है जिसमे हम किसे देश भक्त कहे ये उस बात पर निर्भर करता है कि वो देश के पुराने गद्दारो का कितना बड़ा पुजारी रहा है। खुशवंत सिंह से लेकर शादीलाल के परिवार को सहारा देने वालो को आज देश के लोग भगवान से भी ऊंचा दर्जा देकर बैठे है। ये बात सही है कि देश जमीनों से नही बल्कि लोगो से बनता है, लेकिन उन लोगो का क्या देश जिनकी बुद्धि और संवेदना ही मर चुकी हो। अब जिन लोगो को इन खुशवंत सिंह और शादीलाल के बारे में नही पता, उन्हें सच मे इलाज और ज्ञानवर्धक कैप्सूल की सख्त जरूरत है।
देश के 10 लाख से भी ज्यादा लोगो की मौत के जिम्मेदार, विभाजन के जिम्मेदार सावरकर और जिन्नाह हमेशा ही नदी के दो किनारों की तरह हमेशा साथ चले। मेरे इस ब्लॉग से शायद बहुत लोगो को आपत्ति हो सकती है , लेकिन आज ये लिखना बेहद जरूरी है जब सावरकर को भगत सिंह और नेता जी की श्रेणी में रखने की धृष्टता की जा रही है तो उस कथित वीर की सच्चाई और उस दौर की हकीकत जानना बेहद जरुरी है।
क्या कभी किसी ने ये जानने की कोसिस किया कि "टू नेशन थ्योरी" की मांग जिन्नाह के साथ साथ किसने किया था । ये वही सावरकर थे जो आज कुछ सर्टिफिकेट वाले लोगो की नज़र में "वीर" बने हुए है। किसी ने यह जानने की कोशिश क्यों नहीं की की जेल में काला पानी की सजा भोग रहे सावरकर जी जेल से कुछ ही समय बाद कैसे छूट गए ? और देश के कुछ लोगों के हिसाब से अगर हो स्वतंत्रता के बहुत बड़े सेनानी थे तो 1913 के बाद वो किसी जेल में क्यों नहीं बंद हुये ? ऐसे कौन से क्रांतिकारी थे जो खुलेआम सभाये करते थे,  खुलेआम जिंदगी जीते थे लेकिन कभी भी अंग्रेजों के द्वारा पकड़े नहीं गए ? ऐसी कौन सी घुट्टी पिलाई थी सावरकर जी ने क्या कभी सोचा है किसी ने ? वह घुट्टी थी सावरकर जी द्वारा लिखे गए 22 माफीनामें।
अगर ब्रिटिश सरकार अपनी असीम भलमनसाहत और दयालुता में मुझे रिहा करती है , तो मैं यकीन दिलाता हु की मैं संविधानवादी विकास का सबसे कट्टर समर्थक रहूँगा और अंग्रेजी सरकार के प्रति वफादार रहूँगा ''
ये शब्द उस पत्र का हिस्सा है जो आज़ादी के पहले आरएसएस और बीजेपी के कथित वीर विनायक दामोदर सावरकर ने अंग्रेजी हुकूमत को अपने जेल के दौरान लिखा था, और इसी तरह के उन्होंने कुल २२ पत्र अंग्रेजी सरकार को लिखा ।
मुस्लिम लीग जो दो राष्ट्र वाले सिद्धांत पे चल रहे थी , सावरकर भी उसी नक़्शे कदम पे आगे बढे , हुए अंग्रेजो की फुट डालो और शासन करो की निति को भरपूर सहयोग प्रदान किया।
मुस्लिम राष्ट्रवादियों ने मुस्लिम लीग के बैनर के तले और हिन्दूराष्ट्रवादियो ने हिन्दू महासभा , आरएसएस के बैनर के तले स्वतंत्रता संग्राम का यह कहकर विरोध किया , की हिन्दू और मुस्लिम दो अलग राष्ट्र है । आज़ादी की लड़ाई को पूरी तरह से नाकाम करने के लिए इन दोनों कथित राष्ट्रवादियों ने अंग्रेजो से हाथ मिला लिया , ताकि वे दोनों अपनी पसंद के धार्मिक राष्ट्र हथिया सके। अगर इस पूरे वाकिये को आज की नज़र से देखा जाए तो जिन्नाह और सावरकर में कोई फर्क नहीं है ।
मुस्लिम लीग और राजनैतिक हिन्दुत्वा दोनों ही द्विराष्ट्र सिद्धांत पे काम कर थे, इसी तरह वि डी सावरकर और आरएसएस की द्विराष्ट्र का उद्देश्य भी सफ़ साफ़ समझाजा सकता है , थोड़ा और गहराई में जाए तो यह मिलता है की १९४० में मुस्लिम लीग के तरफ से जिन्न्हा नेअलग मुस्लिम राष्ट्र की मांग किया था , लेकिन उससेकाफी पहले १९३७ में ही अहमदाबाद में हिन्दू महासभा के १९वे महाधिवेशन में सावरकर ने हिन्दू और मुसलमानो के लिए अलग राष्ट्र की मांग कर लिया था , उस समय वो हिन्दू महासभा के अधिवेशन की अध्यक्षता करते हुए ये कहा था की ''फ़िलहाल भारत में दो प्रतिद्वंदी राष्ट्र अगल-बगल रह रहे हैं। कई अपरिपक्व राजनीतिज्ञ यह मान कर गंभीर ग़लती कर बैठते हैं कि हिन्दुस्तान पहले से ही एक सद्भावपूर्ण राष्ट्र के रूप ढल गया है या केवल हमारी इच्छा होने से इस रूप में ढल जाएगा। इस प्रकार के हमारे नेक नीयत वाले पर कच्ची सोच वाले दोस्त मात्र सपनों को सच्चाई में बदलना चाहते हैं। इसलिए वे सांप्रदायिक उलझनों से अधीर हो उठते हैं और इसके लिए सांप्रदायिक संगठनों को ज़िम्मेदार ठहराते हैं। लेकिन ठोस तथ्य यह है कि तथाकथित सांप्रदायिक प्रश्न और कुछ नहीं बल्कि सैकड़ों सालों से हिंदू और मुसलमान के बीच सांस्कृतिक, धार्मिक और राष्ट्रीय प्रतिद्वंद्विता के नतीजे में हम तक पहुंचे हैं। हमें अप्रिय इन तथ्यों का हिम्मत के साथ सामना करना चाहिए। आज यह क़तई नहीं माना जा सकता कि हिंदुस्तान एकता में पिरोया हुआ राष्ट्र है, इसके विपरीत हिंदुस्तान में मुख्यतः दो राष्ट्र हैं, हिंदू और मुसलमान। सावरकर आरएसएस के वह विचारक है जो हिन्दू और मुसलमान के दो अलग अलग राष्ट्र को बनाने का पूरा प्रयास करता है "
इसके उल्टा संघ आज गाँधी नेहरू को विभाजन के लिए जिम्मेदार बताता रहा है, और आज भी इन्होने ऐसा वातावरण बना दिया है की सारा देश ही गाँधी जी और नेहरू जी को देश के विभाजन के लिए मंटा है, किसी नेभी इतिहास के पन्ने उलट कर देखने की जहमत नहीं उठायी।
जैसा कि हमारे प्रधानमंत्री कह चुके हैं कि वे ‘हिंदू राष्ट्रवादी’ हैं,यदि ‘हिंदू राष्ट्रवादी’ होना गर्व की बात है तो गर्व एक समस्या खड़ी करता है। इसी तरह मुस्लिम राष्ट्रवादी, सिखराष्ट्रवादी, इसाई राष्ट्रवादी होंगे। इतने सारे राष्ट्रवादी ज़ाहिर है कि भारतीय राष्ट्रवाद के मुक़ाबले कई टुकड़ियों में एक ख़तरे के रूप में खड़े होंगे। इस हिंदू राष्ट्रवाद में गर्व करने जैसा क्या है, जो भारत जैसे विविधता वाले राष्ट्र को एक ही ढर्रे पर ले जाने की वकालत करता है। इन हिन्दू राजनीज्ञो ने आज़ादी की लड़ाई में सेनानियों का साथ देनेकी वजाय अंग्रेजो का साथ देनेकी वजाय अंग्रेजो का साथ दिया जिसके बदले में उन्होंने संघियो को अभयदान दिया।
जब नेताजी सुभाषचंद्र बोस जी ने अन्य देशो की सहायता से युद्ध के माध्यम से देश को आज़ाद कराने का प्रयास किया तब इन्ही कथित वीरो ने अंग्रेजी सेना की सहायता किया ।उस समय ''वीर'' सावरकर ने ये वक्तव्य कहा ''‘जहां तक भारत की सुरक्षा का सवाल है, हिंदू समाज को भारतसरकार के युद्ध संबंधी प्रयासों में सहानुभूतिपूर्ण सहयोग की भावना से बेहिचक जुड़ जाना चाहिए जब तक यह हिंदू हितों के फ़ायदे में हो।हिंदुओं को बड़ी संख्या में थलसेना, नौसेना और वायुसेना में शामिल होना चाहिए और सभी आयुध, गोला-बारूद, और जंग का सामान बनानेवाले कारख़ानों वगै़रह में प्रवेश करना चाहिए। ग़ौरतलब है कि युद्ध में जापान के कूदने कारण हम ब्रिटेन के शत्रुओं के हमलों के सीधे निशाने पर आ गए हैं।इसलिए हम चाहें या न चाहें, हमें युद्ध के क़हर से अपने परिवार और घर को बचाना है और यह भारत की सुरक्षा के सरकारी युद्ध प्रयासों को ताक़त पहुंचा कर ही किया जा सकता है। इसलिए हिंदू महासभाइयों को ख़ासकर बंगाल और असम के प्रांतों में, जितना असरदार तरीक़े से संभव हो, हिंदुओं को अविलंब सेनाओं में भर्ती होने के लिए प्रेरित करना चाहिए।"
1910-11 तक सावरकर क्रांतिकारी गतिविधियों में शामिल थे।वे पकड़े गए और 1911 में उन्हें अंडमान की कुख्यात जेल में डाल दिया गया। उन्हें 50 वर्षों की सज़ा हुई थी, लेकिन सज़ा शुरू होने के कुछ महीनों में ही उन्होंने अंग्रेज़ सरकार के समक्ष याचिका डाली कि उन्हें रिहा कर दिया जाए। इसके बाद उन्होंने कई याचिकाएं लगाईं। अपनी याचिका में उन्होंने अंग्रेज़ों से यह वादा किया कि "यदि मुझे छोड़ दिया जाए तो मैं भारत के स्वतंत्रता संग्राम सेख़ुद को अलग कर लूंगा और ब्रिट्रिश सरकार के प्रतिअपनी वफ़ादारी निभाउंगा।"
अंडमान जेल से छूटने केबाद उन्होंने यह वादा निभाया भी और कभी किसीक्रांतिकारी गतिविधि में न शामिल हुए, न पकड़े गए। वीडी सावरकर ने 1913 में एक याचिका दाख़िल कीजिसमें उन्होंने अपने साथ हो रहे तमाम सलूक का ज़िक्र किया और अंत में लिखा, ‘हुजूर, मैं आपको फिर से याद दिलाना चाहता हूं कि आप दयालुता दिखाते हुए सज़ा माफ़ी की मेरी 1911 में भेजी गई याचिका पर पुनर्विचार करें और इसे भारत सरकार को फॉरवर्ड करने कीअनुशंसा करें।भारतीय राजनीति के ताज़ा घटनाक्रमोंऔर सबको साथ लेकर चलने की सरकार की नीतियों ने संविधानवादी रास्ते को एक बार फिर खोल दिया है।अब भारत और मानवता की भलाई चाहने वाला कोई भी व्यक्ति, अंधा होकर उन कांटों से भरी राहों पर नहींचलेगा, जैसा कि 1906-07 की नाउम्मीदी और उत्तेजना से भरे वातावरण ने हमें शांति और तरक्की के रास्ते से भटका दिया था।
अपनी याचिका में सावरकर लिखते हैं, ‘अगर सरकार अपनी असीम भलमनसाहत और दयालुता में मुझे रिहा करती है, मैं आपको यक़ीन दिलाता हूं कि मैं संविधानवादी विकास का सबसे कट्टर समर्थक रहूंगाऔर अंग्रेज़ी सरकार के प्रति वफ़ादार रहूंगा, जो कि विकास की सबसे पहली शर्त है।जबतक हम जेल में हैं, तब तक महामहिम के सैकड़ों-हजारें वफ़ादार प्रजा के घरों में असली हर्ष और सुख नहीं आ सकता, क्योंकि ख़ून के रिश्ते से बड़ा कोई रिश्ता नहीं होता. अगर हमें रिहा कर दिया जाता है, तो लोग ख़ुशी और कृतज्ञता के साथ सरकार के पक्ष में, जो सज़ा देने और बदला लेने से ज़्यादा माफ़ करना और सुधारना जानती है, नारे लगाएंगे।’
आगे लिखते हुए उन्होंने कहा की '' इससे भी बढ़कर संविधानवादी रास्ते में मेरा धर्म-परिवर्तन भारत और भारत से बाहर रह रहे उन सभी भटके हुए नौजवानों को सही रास्ते पर लाएगा, जो कभी मुझे अपने पथ-प्रदर्शक के तौर पर देखते थे। मैं भारत सरकार जैसा चाहे, उस रूप में सेवा करने के लिए तैयार हूं, क्योंकि जैसे मेरा यह रूपांतरण अंतरात्मा की पुकार है, उसी तरह से मेरा भविष्य का व्यवहार भी होगा। मुझे जेल में रखने से आपको होने वाला फ़ायदा मुझे जेल से रिहा करने से होने वाले होने वाला फ़ायदे की तुलना में कुछ भी नहीं है।जो ताक़तवर है, वही दयालु हो सकता है और एक होनहार पुत्र सरकार के दरवाज़े के अलावा और कहां लौट सकता है। आशा है, हुजूर मेरी याचनाओं पर दयालुता से विचार करेंगे।"
इन्ही के साथ बीजेपी और आरएसएस के और सिद्धांत श्यामा प्रसाद मुखर्जी का भी जिक्र करना जरूरी है , १९४० के बाद इन्होने मुस्लिम लीग के साथ मिलकर बंगाल में एक अंतरिम सरकार बनाया , जिसमे ये गृहसचिव थे , १९४२ में भारत छोडो आंदोलन के दौरान इन्होने अंग्रेजी हुकूमत को एक पत्र लिखते हुए यह आश्वासन दिया की '' वो बंगाल में भारत छोडो आंदोलनको सफल नहीं होने देंगे और पूरी ताकत से वो इसे ख़तम करेंगे '', और उन्होंने ऐसा किया भी ।
इन लोगो के दोहरे मापदण्ड का आलम ये रहा कि जिस पटेल जी के नाम पर आज ये लोग इतना कूद रहे है, इनको धन्यवाद इस बात का देना चाहिए कि पटेल जी प्रधानमंत्री नही बने, वरना इन लोगो का बिस्तर उसी समय बांध दिए होते। देश के राष्ट्रपिता और आजादी के शीर्ष नायकों के सम्माननीय महात्मा गांधी की हत्या के बाद भी आरएसएस ने देश भर में जश्न मनाने का फैसला किया था । सरदार पटेल आरएसएस के नियत को भली-भांति जानते थे । और उन्होंने इसी वजह से संघ को प्रतिबंधित कर दिया । इसके साथ ही 4 फरवरी 1948 को एक सरकारी पत्राचार में उन्होंने स्पष्टीकरण दिया-
‘‘देश में सक्रिय नफ़रत और हिंसा की शक्तियों को, जो देश की आज़ादी को ख़तरे में डालने का काम कर रही हैं, जड़ से उखाड़ने के लिये भारत सरकार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को ग़ैरक़ानूनी घोषित करने का फ़ैसला किया है। देश के कई हिस्सों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े कई व्यक्ति हिंसा, आगजनी, लूटपाट, डकैती, हत्या आदि की घटनाओं में शामिल रहे हैं और उन्होंने अवैध हथियार तथा गोला-बारूद जमा कर रखा है।वे ऐसे पर्चे बांटते पकड़े गए हैं, जिनमें लोगों को आतंकी तरीक़े से बंदूक आदि जमा करने को कहा जा रहा है।संघ की गतिविधियों से प्रभावित और प्रायोजित होनेवाले हिंसक पंथ ने कई लोगों को अपना शिकार बनाया है।उन्होंने गांधी जी, जिनका जीवन हमारे लिए अमूल्य था, को अपना सबसे नया शिकार बनाया है। इन परिस्थितियों में सरकार इस ज़िम्मेदारी से बंध गई है कि वह हिंसा को फिर से इतने ज़हरीले रूप में प्रकट होने से रोके।इस दिशा में पहले क़दम के तौर पर सरकार ने संघ को एक ग़ैरक़ानूनी संगठन घोषित करने का फ़ैसला किया है।’'
अब इसी के साथ जिन्नाह का भी जिक्र करना बेहद जरूरी है, अगर हम भारतीय इतिहास में जिन्ना को आजादी से अलग किसी जगह खड़े हुए देखे तो , उसके साथ एक और आदमी खड़ा हुआ दिखाई देगा  , वह थे "विनायक दामोदर सावरकर "। क्योंकि दोनों ने लगभग - लगभग एक ही सिद्धांत पर काम किया ।दोनों ने अपनी जिंदगी की शुरुआत या अपने सार्वजनिक जीवन की शुरूआत एक कट्टर देशभक्त के तौर पर किया । दोनों ही अंग्रेजी सरकार के भय और लालच के भंवर जाल में फंस कर अपनी आत्मा को बेचा । उसके बाद दोनों ही कट्टरता के रास्ते पर आगे बढ़े  , और आजादी तक दोनों ने ही अपने जमीर और अपनी आत्मा तक को धो दिया और ।दोनों ने ही देश के दो टुकड़े करने में बिल्कुल समान भूमिका निभाई । एक ने टू नेशन थ्योरी की मांग को सबके 80% जनता की मांग के नाम पर सामने रखा और दूसरे ने इस विरासत को आगे बढ़ाया ।
जिन्ना की जिंदगी को साफ तौर पर दो हिस्सों में बांटा जा सकता है। एक 1937 के पहले के जिन्ना जिन्हें गोखले से लेकर सरोजिनी नायडू तक हिंदू- मुस्लिम एकता का दूत मानते थे।एक जिन्ना वो हैं जो गांधी के आगमन के पहले तक स्वाधीनता सेनानियों की अगली पीढ़ी के तेजतर्रार नुमाइंदे माने जाते थे।जिन्ना की जिंदगी का एक शुरुआती पन्ना है कि वे भारत के पितामह कहे जाने वाले दादाभाई नौरोजी के पर्सनल सेक्रेटरी थे और फिर एनी बेसेंट की होम रूल लीग के एक महत्वपूर्ण स्तम्भ भी ।
मुस्लिम लीग के शुरुआती दौर में उन्होंने उसे कांग्रेस के करीब लाने की कोशिश की और 1916 का कांग्रेस- मुस्लिम लीग का लखनऊ समझौता लोकमान्य तिलक और जिन्ना के साझे प्रयासों का परिणाम था।गांधी के आने के बाद जिन्ना सहित बिपन चंद्र पाल, एनी बेसेंट और जीएस खपर्डे जैसे अन्य बड़े नेता कांग्रेस से अलग हो गए। उसकी वजह थी कि वो लोग आंदोलन के उसी पुराने ढर्रे पर चलना पसंद करते थे जहां कानून का रत्ती भर भी उल्लंघन गलत माना जाता था।
इसके बाद जिन्ना ने कुछ समय के लिए राजनीति से छुट्टी ले ली और वह अपने हितों को साधने में लग गए।
तकरीबन डेढ़ दशक बाद जब वो भारतीय राजनीति में सक्रिय होकर आये तो यह पहले के जिन्ना नहीं थे। इनके पास राजनीति का एक वैकल्पिक नक्शा था जो आक्रामक मुस्लिम सांप्रदायिकता की पैरवी करता था।
जिन्ना ने इस बार आकर कांग्रेस को हिंदुओं का संगठन सिद्ध करने की कोशिशें कीं। गांधी को हर तरह से हिंदुओं का नेता कहकर उनकी खिल्ली उड़ाई। मौलाना आजाद सरीखे कांग्रेस के मुसलमान नेताओं को गद्दार बताने की मुहिम का नेतृत्व किया।इस तरह जिन्ना अब एक उदार सांप्रदायिक की तरह मुस्लिम हितों की पैरवी करने वाले नेता बनने को तैयार नहीं थे। इस दफा वो मुस्लिम सांप्रदायिकता को नए नाखून और नए दांत लगाकर निकले थे।
इसीलिए जब 1937 के चुनावों में मुस्लिम लीग बुरी तरह हार गई तो वो कांग्रेस पर दबाव बनाने लगे कि वो यूनाइटेड प्रोविंस (आज के उत्तर प्रदेश) में मुस्लिम लीग को मुसलमानों के प्रतिनिधि के तौर पर सरकार में शामिल करे। इससे यह साबित हो जाता कि कांग्रेस सिर्फ हिंदुओं की नुमाइंदगी करती है जबकि मुस्लिम लीग ही मुसलमानों की इकलौती प्रतिनिधि है।
दरअसल जिन्ना की मुख्य चिंता कांग्रेस का मुस्लिम मास कांटेक्ट प्रोग्राम था। 1936 से मुसलमानों को कांग्रेस से जोड़ने के लिए चलाये जा रहे इस अभियान को कई राज्यों में उल्लेखनीय सफलता मिल रही थी।सिर्फ यूनाइटेड प्रोविंस में ही 1937 के अंत तक तकरीबन 30,000 मुस्लिम कार्यकर्ता कांग्रेस में शामिल हुए थे।यही हाल पंजाब और पश्चिमोत्तर सीमाप्रांत जैसे राज्यों का भी था।कांग्रेस और मुस्लिम लीग अलग- अलग चुनाव लड़ी थीं और दोनों दलों के बीच किसी तरह का कोई औपचारिक गठबंधन नहीं हुआ था।कांग्रेस के सामने जिन्ना के इस प्रस्ताव को मानने की कोई प्रत्यक्ष वजह नहीं थी इसलिए नेहरू और कांग्रेस ने जिन्ना का प्रस्ताव अंततः ठुकरा दिया।
यही वो मोड़ है जिस पर आकर जिन्ना ने पहली बार सांप्रदायिकता को एक उग्र हिंसक राजनीति में तब्दील कर दिया। सिर्फ यूनाइटेड प्रोविंसेज में ही 1938 के साल में बड़े और छोटे सांप्रदायिक दंगों की बाढ़ सी आ गई। इन दंगों में जहां मुस्लिम लीग सबसे प्रभावी कारक थी तो छोटे-छोटे हिंदू सांप्रदायिक दल इसमें जूनियर पार्टनर की भूमिका अदा कर रहे थे।जिन्ना ने प्रखर हिंदूवादी तिलक के लिए अदालत में फ्री मुकदमा लड़ा था। भगत सिंह को फांसी देने में जल्दबाज़ी कर रही ब्रिटिश सरकार को जिन्ना ने एसेंबली में जैसी लताड़ लगाई थी वैसी किसी ने कभी ही लगाई होगी। गांधी की मुस्लिम नेताओं के रुझान वाली राजनीति के सबसे बड़े आलोचक जिन्ना ही थे। तो फिर?
ये सब सही होने के बावजूद मोहम्मद अली जिन्ना के जीवन का सबसे बड़ा पक्ष “पाकिस्तान” है। वो पाकिस्तान जो हिंदुओं के प्रति कृत्रिम और काल्पनिक भय के आधार पर बनाया गया। वो पाकिस्तान जो डायरेक्ट एक्शन डे में बहे खून से सींचा गया। वो पाकिस्तान जिसकी नींव में एक अनावश्यक विभाजन का दर्द है।जिन्ना के विचार से ना भारत तब सहमत था और ना आज सहमत है। यही विचार सावरकर का रहा है। ये मानते हैं कि हिंदू मुसलमान एक-साथ नहीं रह सकते। हम मानते हैं कि दोनों ना सिर्फ साथ रह सकते हैं बल्कि इस मुल्क का आधार ही विविधता है।
जिन्ना के जीवन को दो भागों में बांटा जा सकता है।  पहले भाग में वो हिंदू-मुस्लिम एकता के अग्रदूत थे (सरोजिनी नायडू के शब्द) । और दूसरे भाग में ऐसे धूर्त शख्स जैसे थे जो अपने मां-बाप का कत्ल करके कोर्ट से इस तर्क पर रहम मांग लेता है कि , वो यतीम हो गया है (नेहरू के शब्द) । वहीं भारत के नागरिक के नाते मैं जिन्ना को पूरे परिप्रेक्ष्य में देखूंगा और उन्हें एक गैर ज़रूरी विभाजनकारी व्यक्ति के तौर पर नही नकारूंगा। सच यही है कि वो हमारे आदर्श नहीं हैं मगर चाहे-अनचाहे इतिहास का हिस्सा तो हैं।
और देश के इतिहास में कुछ इस तरह का रोल सावरकर का भी रहा है । उन्होंने भी हर तरीके के काम को हर तरह से करने की कोशिश की । और कुछ को तो अंजाम भी दे दिया । और इसी लिए उनपे गांधी हत्या का केस भी चला ।टू नेशन थ्योरी की सबसे पहले मांग करने वाला अगर कोई था , तो वह सावरकर ही थे।  जिन्होंने हिंदू महासभा के अधिवेशन में इसकी मांग सबसे पहले रखी थी ।
तो हम सिर्फ जिन्ना को ही भारत के बंटवारे के लिए जिम्मेदार क्यों माने  ? जिन्ना भी उतने ही दोषी हैं जितने कि सावरकर।  इनकी टू नेशन थ्योरी के खिलाफ अगर कोई खड़ा था तो वह गांधी जी और नेहरू जी ही थे । लेकिन नेहरू जी जिन्ना की मांग के आगे अपना विचार बदलने को मजबूर हुए।  जिन्ना आजादी के बाद खुद प्रधानमंत्री बनना चाहते थे  , यहां तक तो नेहरू को सही लगा । लेकिन उसके बाद उन्होंने देश के सभी उच्च पदों पर मुसलमानों की नियुक्ति की भी मांग कर दी।  जो एक तरह से हिंदुओं के साथ अन्याय था । और यही बात पंडित नेहरू को भी खली । उनके साथ साथ सरदार पटेल को भी यही बात खली।  जबकि देश के दो टुकड़े होने से बचाने के लिए गांधीजी यह भी बात मानने को तैयार हो गए थे।
संयोग नहीं है कि अपनी जिंदगी के पहले हिस्से की उपलब्धियों को अपनी बाद की जिंदगी में धो डालने वाले यह दोनों राजनीतिज्ञ भारत विभाजन के द्विराष्ट्र सिद्धांत के गजब पैरोकार थे। और यह तो बिलकुल ही संयोग नहीं है कि अंग्रेजों के सामने गिड़गिड़ाने वाले सावरकर को ‘वीर’ कहकर उनकी तस्वीर को संसद के सेंट्रल हॉल में और मूर्ति को भगत सिंह और नेता जी के साथ लगाने वाले , एएमयू के यूनियन हॉल में जिन्ना की तस्वीर पर अपनी सांप्रदायिक राजनीति चमकाते है।
आज बात इस बात पर निकली क्योकि दिल्ली में एबीवीपी के एक लफंगे ने सावरकर की मूर्ति भगत सिंह के साथ लगाने का कुकृत्य किया। एक भगत सिंह खुद को फांसी देने के लिए अंग्रेजो को पत्र लिखा । वही भाजपा-आरएसएस के विचारक सावरकर ने अपनी रिहाई के लिए भीख मांगी, यह 1931 में लाहौर जेल और 1913 में सेलुअर जेल, अंडमान में अपनी याचिकाओं में भगत सिंह और सावरकर को ने बहुत कुछ लिखा।
अपने खत में भगत सिंह ने कहा, "यह ब्रिटिश राष्ट्र और भारतीय राष्ट्र के बीच एक युद्ध की स्थिति है और दूसरी बात यह है कि हमने वास्तव में उस युद्ध में भाग लिया था और इसलिए युद्धबंदी है , और उनके जैसा ही व्यवहार किया जाए। हम यह बताना चाहते थे कि आपके न्यायालय के फैसले के अनुसार हमने युद्ध छेड़ा था और इसलिए युद्ध के प्रतिपादक थे। और हम इस तरह से व्यवहार करने का दावा करते हैं, यानी हम फांसी के बजाय गोली मारकर हत्या करने का दावा करते हैं ।आप बहुत विनम्रता से सैन्य विभाग को हमारी टुकड़ी भेजने का आदेश देंगे, ताकि वह भगत सिंह को उद्धृत कर सके।"
जबकि सावरकर ने कहा था कि अगर सरकार उनके हितैषी होने और दया की रिहाई करती है, तो मैं एक के लिए नहीं बल्कि संवैधानिक प्रगति के कट्टर वकील और अंग्रेजी सरकार के प्रति निष्ठा रख सकता हूं जो उस प्रगति की सबसे महत्वपूर्ण शर्त है। पराक्रमी अकेले ही दयालु हो सकते हैं और इसलिए जहाँ पर विलक्षण पुत्र वापस आ सकते हैं, लेकिन सरकार के माता-पिता के दरवाजे पर नहीं जा सकते हैं। और किसी भी क्षमता में सरकार (ब्रिटिश) को वे पसंद करते हैं, क्योंकि मेरा रूपांतरण कर्तव्यनिष्ठ है, इसलिए मुझे उम्मीद है कि मेरा भविष्य का आचरण होगा।
पूरे देश को महात्मा गांधी की हत्या का दर्द देने वाले ऐसे लोगों को आज वीर कहा जाता है , तो आत्मा को बहुत तकलीफ होती है । देश के 10 लाख लोगों को मौत के घाट उतारने वाले जिन्ना और कथित वीर एक ही थाली के चट्टे बट्टे रहे।  लेकिन जब उस कथित वीर को  सेनानी और देशभक्त साबित करने की कोशिश की जाती है,  और शहीद ए आजम भगत सिंह के साथ एक पलड़े पर रखने की कोशिश की जाती है , तो मन में एक खींझ जाग जाती है।  आखिर देश के 10 लाख लोगों की मौत के जिम्मेदार , ना जाने कितनों के घर उजाड़ने वाले,  ना जाने कितनों को अपंग बनाने वाले , देश की वीभत्स स्थिति के जिम्मेदार , दुनिया के मानव इतिहास का सबसे बड़े नरसंहार का जिम्मेदार , मानव इतिहास के सबसे बड़े पलायन के जिम्मेदार ,  "वीर" कैसे हो सकते हैं ?
जिन लोगों ने देश के माथे पर इतना बड़ा कलंक लगा दिया , जिन लोगों ने देश के लोगों को आजादी का जश्न भी ठीक से मनाने ना दिया,  वह लोग "वीर" या "कायदे आजम" कैसे हो सकते हैं ?  क्या सिर्फ जमीन को हथिया लेना ही "कायदे आजम" कहलाता है ? या फिर नाक रगड़ रगड़ कर माफी मांग मांग कर अपने आप को सजा मुक्त करवाना करवाना "वीर" कहलाता है ?
इतिहास सब कुछ याद रखता है,  यही इसकी सबसे अच्छी खासियत होती है।  यह निष्पक्ष होता है,  इसकी नजर में ना कोई बुरा है ना कोई भला है। यह बस सच दिखाता है।  और देखने वाला भला-बुरा अपने मापदंडों पर तय करता है । भले ही लोगों ने आज  इतने बड़े नरसंहार के जिम्मेदारों को "कायदे आजम" और "वीर" की संज्ञा दी दी हो। लेकिन इन दोनों की जीवन यात्रा और मौत के तरीके ने दिखा दिया कि इन दोनों को कभी भी इस नरसंहार के लिए माफ नहीं किया गया।  देश को बंटवारे की आग में झोंकने वाले अपराधी हमेशा देश के सबसे बड़े गुनहगार रहेंगे। 
और जब शहीद-ए-आजम के साथ ऐसे लोगों की मूर्तियां लगाई जाती है ,जो शर्म आती है । और लोग इनको भगत सिंह से तुलना करने की सोचते है। हमारे देश के कुछ ऐसे  वासियों की सोच पर थूकने का मन करता है, जो गद्दारों को शहीद-ए-आजम के साथ लगाते हैं । शहीद-ए-आजम और नेताजी के स्तर को छूना तो दूर , यह गद्दार शहीद-ए-आजम की परछाई के आसपास भी दिखने के काबिल नहीं है। इन गद्दारों की इतनी औकात नहीं जो शहीद ए आजम के कद को देखने की भी जूर्रत कर सके ।

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