तेरी नज़र नज़र गढ़ी गयी है इलाही कलम से

तेरी  नज़र  नज़र गढ़ी  गयी है इलाही  कलम से
फिर  इसमें  भरा  है  नशा  मैखाना ए झेलम  से

जब भी मिलन को आती है तू खामोश कदम से
जहां  ये  जाग  जाता  है  पाजेब  की  नज़म  से

घड़ी थी इज़हार की, वो  आये न ताक शरम से
फिर कैसे दिल ए हाल कहूँ मैं शोख ए सनम से

जब भी  साया  तेरा गुज़रता है हमारी  नज़र से
सजदे  में  बैठा जाता हूँ मैं अल्लाह के भरम से

अधर ये लबरेज रहे खुशबू ए गुलनार चमन से
आती  रहे  बाग  ए  बाहर  तेरे  शोख  बदन से

सुकून ए हाल  मिलता रहे आँचल के अगम से
फिर खुशबू सारी चुरा लाऊँ मैं बाग ए पुनम से

जो जाम रहे, पैमाना रहे मेरी शाकी के करम से
मैं आंखों में देख के पीता रहूँ खुदा की कसम से

मौजूदगी रही है  महक तेरी गुलपोश अनम से
खिल रहे है  चमन जार  ये  तेरे  नूर ए हशम से


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