आस्था अगर तर्क के प्रहार से टूट जाये या बिखर जाए तो वो आस्था नही अंधविश्वास होगा। और ऐसी आस्था का खत्म होजाना ही बेहतर है जो तर्कों को सहन करने की क्षमता न रखती हो। आस्था के सारे पहलुओं को अपने कसौटी ओर तौलो, और अगर वही खरी नही उतरती तो यदि उसे खुद भगवान ने आकर बोला हो तो भी मानने से इनकार दो। - सरदार भगत सिंह जी
भगत सिंह की बात होते ही हम उनके जीवन के सिर्फ और सिर्फ क्रांतिकारी पहलुओं के बारे में ही चर्चा करते हैं , या केवल उन्ही के बारे में ही जानते है। इसीलिए मैंने पहले भी कहा है कि इस देश के इतिहास ने, इतिहास कारों ने और धूर्त नेताओं ने भगत सिंह के साथ बड़ी नाइंसाफी की है । और इस देश की मूर्ख जनता ने उस नाइंसाफी को उनके लिए सम्मान समझ कर गले लगा लिया । इस देश में जहां सावरकर जैसे लोगों को भी भारत रत्न देने की मांग, अपने आप को दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी कहने वाले भारत के सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी के लोग कर सकते हैं, नाथूराम गोडसे की पूजा कर सकते हैं, लेकिन भगत सिंह के नाम पर इनको सांप सूंघ जाता है।
यहां तक कि भारतीय जनता पार्टी अपने चुनावी घोषणा पत्र में भी सावरकर को भारत रत्न देने के वादे कर सकती है । लेकिन जब बात भगत सिंह और उनके साथियों को भारत रत्न देने की होती है , तब भारत रत्न तो छोड़िए कि लोग उनको शहीद का भी दर्जा नहीं देते। यही दिखाता है कि राजनीति में दोगलेपंती और बेशर्मी का मसाला कितना कूट-कूट कर भरा हुआ है। चालाकी और धूर्तता किस कदर इन नेताओं में भरी हुई है की, अंग्रेजों के सामने नाक रगड़ कर माफी मांगने वाले को भारत रत्न देने की मांग कर रहे हैं, और जिन्होंने अंग्रेजों के सामने बुलंदी से आवाज उठाया उनके साम्राज्य की न्यू को हिला कर रख दिया उसे शहीद का दर्जा भी देने की जहमत नहीं उठा रहे हैं।
खैर हम बात कर रही है भगत सिंह की जीवन की कई अनछुए पहलुओं के बारे में । हमें तो बस यही लिखा या पढ़ाया और समझाया गया कि भगत सिंह ने क्रांतिकारी थे जिन्होंने सांडर्स को मारा बम फोड़ा और देश के लिए फांसी पर झूल गए इस देश की बेईमान इतिहासकारों ने कभी भी यह बताने की कोशिश जरा भी नहीं की क्या थी उनकी जीवन की एक ही परत हमें दिखा कर हमें बेवकूफ बनाया गया। जबकि एक इंसान के जीवन की कई परतें होती हैं। परत दर परत इंसान कई संभावनाएं लिए होता है। और जब वो जीवन भगत सिंह जैसे व्यक्तित्व का हो तो फिर हर मोड़ पर नाटक और रोमांच ही रोमांच ही मिलेगा। और उससे बढ़कर अगर कुछ मिलेगा तो देश और समाज के प्रति उनकी चिंता और समाज के रचना की बाते। भगत सिंह भी ऐसी शख्सियत थे, जो केवल क्रांति का ही जज्बा नहीं रखते थे बल्कि समाज के अलग-अलग मसलों पर अपने विचार रखते थे जो उनके समकालीन लोगों से हमेशा लीक से हटकर होते थे। इसके पीछे उनका व्यापक अध्ययन और समाज को देखने का नज़रिया था। भगत सिंह का मानना था कि हम तभी किसी के तर्कों को काट सकते हैं जब हमने अध्ययन किया हो.
1923 का समय था। भगत सिंह नेशनल कॉलेज लाहौर से एफ.ए (फैक्लटी ऑफ आर्ट्स) कर रहे थे। बहसों और चर्चाओं में उनका मन रमता जा रहा था। इसी दौरान उनके दादाजी ने उनकी शादी करने का फैसला किया. वह इसके खिलाफ थे और अपने जीवन को देश के लिए समर्पित करना चाहते थे।
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर चमन लाल ने अपनी किताब भगत सिंह रीडर में भगत सिंह द्वारा अपने पिता को लिखी चिट्ठी का ज़िक्र किया है। उन्होंने अपने पिता को खत में लिखा कि मेरा एकमात्र उद्देश्य भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति है। इसलिए मेरे लिए इच्छाओं और आराम का कोई स्थान नहीं है। आपको याद होगा कि मेरे यज्ञोपवीत संस्कार के समय बापूजी ने कहा था कि मेरा जीवन देश के काम आएगा। मैं उसी को निभा रहा हूं। मैं आशा करता हूं कि आप उदारतापूर्वक मुझे माफ करेंगे।
कम उम्र में ही भगत सिंह ने समाज के कई महत्वपूर्ण विषयों पर अपने विचार रखे। इन विचारों के पीछे उनका विषय के बारे में गहन अध्ययन और तार्किक आधार था। अस्पृश्यता, सत्याग्रह, युवा नेताओं, धर्म समेत कई विषयों पर उन्होंने विस्तार से लिखा जो अलग-अलग नाम से तत्कालीन अखबारों में छपा।1920-30 के समय अछूत और अस्पृश्यता को लेकर एक बड़ा सवाल समाज के सामने खड़ा था। समाज में निचली जातियों के लोगों को दोयम दर्जे का नागरिक माना जाता था। इसी को लेकर जून 1928 में भगत सिंह ने विद्रोही नाम से ‘अछूत दा सवाल ‘ शीर्षक से एक लंबा लेख लिखा। जिसमें उन्होंने मजदूर वर्ग जिन्हें अछूत माना जाता था, उनकी समस्या को लेकर, उनके प्रति समाज की सोच और कैसे यह वर्ग उठ खड़ा हो, इस पर विस्तार से लिखा और इसका हल बताया.
भगत सिंह ने अपने लेख में लिखा, हमारा देश धार्मिक मान्यताओं को मानते हुए भी मनुष्य को मनुष्य की तरह नहीं देखता है। अमेरिकन और फ्रेंच क्रांति के मूल में समानता की भावना थी ।आज रूस से भी सभी तरह के भेदभाव खत्म हो गए हैं। लेकिन हम अपने देश में देखें तो हम अपने ही लोगों के साथ ठीक से व्यवहार नहीं करते हैं। जब हमारे लोग दूसरे देश जाते हैं और उनके साथ वहां दुर्व्यवहार होता है तो वो शिकायत करते हैं। क्या हमें ऐसा करने का कोई हक है? वो आगे लिखते हैं – हम जानवरों को अपने पास बैठाते हैं लेकिन एक मनुष्य को अपने पास बैठाने से हिचकते हैं"।
एक अच्छा समाज कैसे बनाया जाए इसका जवाब भी भगत सिंह अपने इसी लेख में देते हैं। वो लिखते हैं "इस समस्या का हल बहुत आसान है। हमें सभी मनुष्यों को एक समान रूप से देखना चाहिए। जन्म या उसके काम के आधार पर भेदभाव को बंद करना पड़ेगा तभी समतामूलक समाज का निर्माण हो सकता है। वो अस्पृश्य कहे जाने वाले लोगों से कहते हैं "कि उठो ! अपने इतिहास की तरफ देखो।आप लोग ही गुरू गोविंद सिंह की सेना की जान थे। आप लोगों की वजह से ही शिवाजी कुछ कर पाए। आप लोगों का संघर्ष और बलिदान स्वर्णिम अक्षरों मेंं लिखा जा रहा है। आपको अपने प्रयासों द्वारा खुद ही उठना पड़ेगा। संगठित होकर लड़ना होगा। फिर देखिए कोई आपको आपके अधिकारों को देने से रोक नहीं पाएगा।आप लोग ही इस देश के आधार हैं। आप लोगों के पास खोने के लिए कुछ नहीं है। वर्तमान व्यवस्था के खिलाफ उठ खड़े होइए सामाजिक आंदोलन के ज़रिए एक क्रांति को जन्म दीजिए।"
ये सर्वविदित है कि सांडर्स की हत्या करने के लिए और बम फेंकने के लिए भगत सिंह को सजा हुई। शुरुआत में उन्हें दिल्ली की जेल में रखा गया और बाद में लाहौर भेज दिया गया। जेल में रहते हुए भगत सिंह ने कई खत और लेख लिखे जिन्होंने युवाओं को प्रभावित किया। और आज भी उन दस्तावेजों को इतिहास में पढ़ाया जाता है । लेकिन आजकल हमें जो इतिहास में पढ़ाया जा रहा है, या हमारे कथित प्रधान सेवक द्वारा बताया जा रहा है उसके मुताबिक तो यही होता है कि इस देश के सबसे बड़े दुश्मन और सबसे बड़े गद्दार देश की सारी समस्याओं के लिए जिम्मेदार और भगत सिंह की फांसी करवाने वाले पंडित जवाहरलाल नेहरु है। या कई बार भगत सिंह की फांसी के लिए गांधी जी को भी जिम्मेदार बताया गया है । और हमें हमेशा यही बताने की कोशिश की गई है कि भगत सिंह गांधी और नेहरू के बहुत बड़े विद्रोही रहे
जबकि उसके उलट ऐसे बहुत सारे मौके आए जहां पर भगत सिंह ने नेहरू जी या गांधीजी की तारीफ किया। या ऐसे भी मौके आए जहां पर गांधी जी या नेहरु जी ने भगत सिंह की तारीफ किया । भगत सिंह को श्रद्धांजलि देते हुए गांधी ने 29 मार्च, 1931 को गुजराती नवजीवन में लिखा था- ''वीर भगत सिंह और उनके दो साथी फांसी पर चढ़ गए। उनकी देह को बचाने के बहुतेरे प्रयत्न किए गए, कुछ आशा भी बंधी, पर वह व्यर्थ हुई ।भगत सिंह अहिंसा के पुजारी नहीं थे, लेकिन वे हिंसा को भी धर्म नहीं मानते थे। इन वीरों ने मौत के भय को जीता था। इनकी वीरता के लिए इन्हें हजारों नमन हों।''
भगत सिंह ने अपने एक लेख में नेहरू और बोस के विचारों की तुलनात्मक नजरिया दिया । जुलाई 1928 को 'किरती' अखबार में भगत सिंह का एक लेख छपा था, इस लेख में भगत सिंह ने नेता सुभाष चंद्र बोस और जवाहरलाल नेहरू के विचारों की तुलना की थी। इस लेख के जरिए भगत सिंह ने युवाओं को संदेश दिया था कि आखिर आजादी की लड़ाई में उन्हें किसके साथ जाना चाहिए या किस पर ज्यादा भरोसा करना चाहिए। यह लेख 1000 शब्दों से अधिक का था उसका कुछ हिस्सा आप यहां पढ़ सकते हैं।
""असहयोग आन्दोलन की असफलता के बाद जनता में बहुत निराशा और मायूसी फैली। हिन्दू-मुस्लिम झगड़ों ने बचा-खुचा साहस भी खत्म कर डाला। लेकिन देश में जब एक बार जागृति फैल जाए तब देश ज्यादा दिन तक सोया नहीं रह सकता। कुछ ही दिनों बाद जनता बहुत जोश के साथ उठती तथा हमला बोलती है। आज हिन्दुस्तान में फिर जान आ गई है। हिन्दुस्तान फिर जाग रहा है। देखने में तो कोई बड़ा जन-आन्दोलन नजर नहीं आता लेकिन नींव जरूर मजबूत की जा रही है। आधुनिक विचारों के अनेक नए नेता सामने आ रहे हैं। इस बार नौजवान नेता ही देशभक्त लोगों की नजरों में आ रहे हैं। बड़े-बड़े नेता बड़े होने के बावजूद एक तरह से पीछे छोड़े जा रहे हैं। इस समय जो नेता आगे आए हैं वे हैं- बंगाल के पूजनीय श्री सुभाषचन्द्र बोस और माननीय पण्डित श्री जवाहरलाल नेहरू। यही दो नेता हिन्दुस्तान में उभरते नजर आ रहे हैं और युवाओं के आन्दोलनों में विशेष रूप से भाग ले रहे हैं। दोनों ही हिन्दुस्तान की आजादी के कट्टर समर्थक हैं। दोनों ही समझदार और सच्चे देशभक्त हैं। लेकिन फिर भी इनके विचारों में जमीन-आसमान का अन्तर है। एक को भारत की प्राचीन संस्कृति का उपासक कहा जाता है तो दूसरे को पक्का पश्चिम का शिष्य। एक को कोमल हृदय वाला भावुक कहा जाता है और दूसरे को पक्का युगान्तरकारी। हम इस लेख में उनके अलग-अलग विचारों को जनता के समक्ष रखेंगे, ताकि जनता स्वयं उनके अन्तर को समझ सके और स्वयं भी विचार कर सके। लेकिन उन दोनों के विचारों का उल्लेख करने से पूर्व एक और व्यक्ति का उल्लेख करना भी जरूरी है जो इन्हीं स्वतन्त्रता के प्रेमी हैं और युवा आन्दोलनों की एक विशेष शख्सियत हैं। साधू वासवानी चाहे कांग्रेस के बड़े नेताओं की भाँति जाने माने तो नहीं, चाहे देश के राजनीतिक क्षेत्र में उनका कोई विशेष स्थान तो नहीं, तो भी युवाओं पर, जिन्हें कि कल देश की बागडोर संभालनी है, उनका असर है और उनके ही द्वारा शुरू हुआ आन्दोलन ‘भारत युवा संघ’ इस समय युवाओं में विशेष प्रभाव रखता है।
“हमारी राजनीति ने अब तक कभी तो मैजिनी और वाल्टेयर को अपना आदर्श मानकर उदाहरण स्थापित किए हैं और या कभी लेनिन और टॉल्स्टाय से सबक सीखा। हालांकि उन्हें ज्ञात होना चाहिए कि उनके पास उनसे कहीं बड़े आदर्श हमारे पुराने ॠषि हैं।” वे इस बात पर यकीन करते हैं कि हमारा देश एक बार तो विकास की अन्तिम सीमा तक जा चुका था और आज हमें आगे कहीं भी जाने की आवश्यकता नहीं, बल्कि पीछे लौटने की जरूरत है।
आप एक कवि हैं। कवित्व आपके विचारों में सभी जगह नजर आता है। साथ ही यह धर्म के बहुत बड़े उपासक हैं। यह'शक्ति’ धर्म चलाना चाहते हैं। यह कहते हैं, “इस समय हमें शक्ति की अत्यन्त आवश्यकता है।” वह ‘शक्ति’ शब्द का अर्थ केवल भारत के लिए इस्तेमाल नहीं करते। लेकिन उनको इस शब्द से एक प्रकार की देवी का, एक विशेष ईश्वरीय प्राप्ति का विश्वास है। वे एक बहुत भावुक कवि की तरह कहते हैं —
“For in solitude have communicated with her, our admired Bharat Mata, And my aching head has heard voices saying... The day of freedom is not far off.” ..Sometimes indeed a strange feeling visits me and I say to myself – Holy, holy is Hindustan. For still is she under the protection of her mighty Rishis and their beauty is around us, but we behold it not.
अर्थात् एकान्त में भारत की आवाज मैंने सुनी है। मेरे दुखी मन ने कई बार यह आवाज सुनी है कि ‘आजादी का दिन दूर नहीं'...कभी कभी बहुत अजीब विचार मेरे मन में आते हैं और मैं कह उठता हूँ — हमारा हिन्दुस्तान पाक और पवित्र है, क्योंकि पुराने ॠषि उसकी रक्षा कर रहे हैं और उनकी खूबसूरती हिन्दुस्तान के पास है। लेकिन हम उन्हें देख नहीं सकते।
यह कवि का विलाप है कि वह पागलों या दीवानों की तरह कहते रहे हैं — “हमारी माता बड़ी महान है। बहुत शक्तिशाली है। उसे परास्त करने वाला कौन पैदा हुआ है।” इस तरह वे केवल मात्र भावुकता की बातें करते हुए कह जाते हैं — “Our national movement must become a purifying mass movement, if it is to fulfil its destiny without falling into clasaa war one of the dangers of Bolshevism.”
अर्थात् हमें अपने राष्ट्रीय जन आन्दोलन को देश सुधार का आन्दोलन बना देना चाहिए। तभी हम वर्गयुद्ध के बोल्शेविज्म के खतरों से बच सकेंगे। वह इतना कहकर ही कि गरीबों के पास जाओ, गाँवों की ओर जाओ, उनको दवा-दारू मुफ्त दो — समझते हैं कि हमारा कार्यक्रम पूरा हो गया। वे छायावादी कवि हैं। उनकी कविता का कोई विशेष अर्थ तो नहीं निकल सकता, मात्र दिल का उत्साह बढ़ाया जा सकता है। बस पुरातन सभ्यता के शोर के अलावा उनके पास कोई कार्यक्रम नहीं। युवाओं के दिमागों को वे कुछ नया नहीं देते। केवल दिल को भावुकता से ही भरना चाहते हैं। उनका युवाओं में बहुत असर है। और भी पैदा हो रहा है। उनके दकियानूसी और संक्षिप्त-से विचार यही हैं जो कि हमने ऊपर बताए हैं। उनके विचारों का राजनीतिक क्षेत्र में सीधा असर न होने के बावजूद बहुत असर पड़ता है। विशेषकर इस कारण कि नौजवानों,युवाओं को ही कल आगे बढ़ना है और उन्हीं के बीच इन विचारों का प्रचार किया जा रहा है।अब हम श्री सुभाषचन्द्र बोस और श्री जवाहरलाल नेहरू के विचारों पर आ रहे हैं। दो-तीन महीनों से आप बहुत-सी कान्फ्रेंसों के अध्यक्ष बनाए गए और आपने अपने-अपने विचार लोगों के सामने रखे। सुभाष बाबू को सरकार तख्तापलट गिरोह का सदस्य समझती है और इसीलिए उन्हें बंगाल अध्यादेश के अन्तर्गत कैद कर रखा था। आप रिहा हुए और गर्म दल के नेता बनाए गए। आप भारत का आदर्श पूर्ण स्वराज्य मानते हैं, और महाराष्ट्र कान्फ्रेंस में अध्यक्षीय भाषण में अपने इसी प्रस्ताव का प्रचार किया।पण्डित जवाहरलाल नेहरू स्वराज पार्टी के नेता मोतीलाल नेहरू ही के सुपुत्र हैं। बैरिस्टरी पास हैं। आप बहुत विद्वान हैं। आप रूस आदि का दौरा कर आए हैं। आप भी गर्म दल के नेता हैं और मद्रास कान्फ्रेंस में आपके और आपके साथियों के प्रयासों से ही पूर्ण स्वराज का प्रस्ताव स्वीकृत हो सका था। आपने अमृतसर कान्फ्रेंस के भाषण में भी इसी बात पर जोर दिया। लेकिन फिर भी इन दोनों सज्जनों के विचारों में जमीन-आसमान का अन्तर है। अमृतसर और महाराष्ट्र कान्फ्रेंसों के इन दोनों अध्यक्षों के भाषण पढ़कर ही हमें इनके विचारों का अन्तर स्पष्ट हुआ था। लेकिन बाद में बम्बई के एक भाषण में यह बात स्पष्ट रूप से हमारे सामने आ गई। पण्डित जवाहरलाल नेहरू इस जनसभा की अध्यक्षता कर रहे थे और सुभाषचन्द्र बोस ने भाषण दिया। वह एक बहुत भावुक बंगाली हैं। उन्होंने भाषण आरंभ किया कि हिन्दुस्तान का दुनिया के नाम एक विशेष सन्देश है। वह दुनिया को आध्यात्मिक शिक्षा देगा। खैर, आगे वे दीवाने की तरह कहना आरम्भ कर देते हैं — चांदनी रात में ताजमहल को देखो और जिस दिल की यह सूझ का परिणाम था, उसकी महानता की कल्पना करो। सोचो एक बंगाली उपन्यासकार ने लिखा है कि हममें यह हमारे आँसू ही जमकर पत्थर बन गए हैं। वह भी वापस वेदों की ओर ही लौट चलने का आह्वान करते हैं। आपने अपने पूना वाले भाषण में ‘राष्ट्रवादिता’ के सम्बन्ध में कहा है कि अन्तर्राष्ट्रीयतावादी, राष्ट्रीयतावाद को एक संकीर्ण दायरे वाली विचारधारा बताते हैं, लेकिन यह भूल है। हिन्दुस्तानी राष्ट्रीयता का विचार ऐसा नहीं है। वह न संकीर्ण है, न निजी स्वार्थ से प्रेरित है और न उत्पीड़नकारी है, क्योंकि इसकी जड़ या मूल तो ‘सत्यम् शिवम् सुन्दरम्’ है अर्थात् सच,कल्याणकारी और सुन्दर।
यह भी वही छायावाद है। कोरी भावुकता है। साथ ही उन्हें भी अपने पुरातन युग पर बहुत विश्वास है। वह प्रत्येक बात में अपने पुरातन युग की महानता देखते हैं। पंचायती राज का ढंग उनके विचार में कोई नया नहीं। ‘पंचायती राज और जनता के राज'वे कहते हैं कि हिन्दुस्तान में बहुत पुराना है। वे तो यहाँ तक कहते हैं कि साम्यवाद भी हिन्दुस्तान के लिए नई चीज नहीं है। खैर, उन्होंने सबसे ज्यादा उस दिन के भाषण में जोर किस बात पर दिया था कि हिन्दुस्तान का दुनिया के लिए एक विशेष सन्देश है। पण्डित जवाहरलाल आदि के विचार इसके बिल्कुल विपरीत हैं। वे कहते हैं —
“जिस देश में जाओ वही समझता है कि उसका दुनिया के लिए एक विशेष सन्देश है। इंग्लैंड दुनिया को संस्कृति सिखाने का ठेकेदार बनता है। मैं तो कोई विशेष बात अपने देश के पास नहीं देखता। सुभाष बाबू को उन बातों पर बहुत यकीन है।” जवाहरलाल कहते हैं —
“Every youth must rebel. Not only in political sphere, but in social, economic and religious spheres also. I have not much use for any man who comes and tells me that such and such thing is said in Koran, Every thing unreasonable must be discarded even if they find authority for in the Vedas and Koran.”
[यानी] “प्रत्येक नौजवान को विद्रोह करना चाहिए। राजनीतिक क्षेत्र में ही नहीं बल्कि सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक क्षेत्र में भी। मुझे ऐसे व्यक्ति की कोई आवश्यकता नहीं जो आकर कहे कि फलाँ बात कुरान में लिखी हुई है । कोई बात जो अपनी समझदारी की परख में सही साबित न हो उसे चाहे वेद और कुरान में कितना ही अच्छा क्यों न कहा गया हो, नहीं माननी चाहिए।”
यह एक युगान्तरकारी के विचार हैं और सुभाष के एक राज-परिवर्तनकारी के विचार हैं। एक के विचार में हमारी पुरानी चीजें बहुत अच्छी हैं और दूसरे के विचार में उनके विरुद्ध विद्रोह कर दिया जाना चाहिए। एक को भावुक कहा जाता है और एक को युगान्तरकारी और विद्रोही। पण्डित जी एक स्थान पर कहते हैं —
“To those who still fondly cherish old ideas and are striving to bring back the conditions which prevailed in Arabia 1300 years ago or in the Vedic age in India. I say, that it is inconceivable that you can bring back the hoary past. The world of reality will not retrace its steps, the world of imaginations may remain stationary.”
वे कहते हैं कि जो अब भी कुरान के जमाने के अर्थात् 1300 बरस पीछे के अरब की स्थितियाँ पैदा करना चाहते हैं, जो पीछे वेदों के जमाने की ओर देख रहे हैं उनसे मेरा यह कहना है कि यह तो सोचा भी नहीं जा सकता कि वह युग वापस लौट आएगा, वास्तविक दुनिया पीछे नहीं लौट सकती, काल्पनिक दुनिया को चाहे कुछ दिन यहीं स्थिर रखो। और इसीलिए वे विद्रोह की आवश्यकता महसूस करते हैं।
सुभाष बाबू पूर्ण स्वराज के समर्थन में हैं क्योंकि वे कहते हैं कि अंग्रेज पश्चिम के वासी हैं। हम पूर्व के। पण्डित जी कहते हैं,हमें अपना राज कायम करके सारी सामाजिक व्यवस्था बदलनी चाहिए। उसके लिए पूरी-पूरी स्वतन्त्रता प्राप्त करने की आवश्यकता है।
सुभाष बाबू मजदूरों से सहानुभूति रखते हैं और उनकी स्थिति सुधारना चाहते हैं। पण्डित जी एक क्रांति करके सारी व्यवस्था ही बदल देना चाहते हैं। सुभाष भावुक हैं — दिल के लिए। नौजवानों को बहुत कुछ दे रहे हैं, पर मात्र दिल के लिए। दूसरा युगान्तरकारी है जो कि दिल के साथ-साथ दिमाग को भी बहुत कुछ दे रहा है।
“They should aim at Swaraj for the masses based on socialism. That was a revolutionary change with they could not bring out without revolutionary methods...Mere reform or gradual repairing of the existing machinery could not achieve the real proper Swaraj for the General Masses.” अर्थात् हमारा समाजवादी सिद्धान्तों के अनुसार पूर्ण स्वराज होना चाहिए, जो कि युगान्तरकारी तरीकों के बिना प्राप्त नहीं हो सकता। केवल सुधार और मौजूदा सरकार की मशीनरी की धीमी-धीमी की गई मरम्मत जनता के लिए वास्तविक स्वराज्य नहीं ला सकती।यह उनके विचारों का ठीक-ठाक अक्स है। सुभाष बाबू राष्ट्रीय राजनीति की ओर उतने समय तक ही ध्यान देना आवश्यक समझते हैं जितने समय तक दुनिया की राजनीति में हिन्दुस्तान की रक्षा और विकास का सवाल है। परन्तु पण्डित जी राष्ट्रीयता के संकीर्ण दायरों से निकलकर खुले मैदान में आ गए हैं।अब सवाल यह है कि हमारे सामने दोनों विचार आ गए हैं। हमें किस ओर झुकना चाहिए। एक पंजाबी समाचार पत्र ने सुभाष की तारीफ के पुल बाँधकर पण्डित जी आदि के बारे में कहा था कि ऐसे विद्रोही पत्थरों से सिर मार-मारकर मर जाते हैं। ध्यान रखना चाहिए कि पंजाब पहले ही बहुत भावुक प्रान्त है। लोग जल्द ही जोश में आ जाते हैं और जल्द ही झाग की तरह बैठ जाते हैं।मसुभाष आज शायद दिल को कुछ भोजन देने के अलावा कोई दूसरी मानसिक खुराक नहीं दे रहे हैं। अब आवश्यकता इस बात की है कि पंजाब के नौजवानों को इन युगान्तरकारी विचारों को खूब सोच-विचार कर पक्का कर लेना चाहिए। इस समय पंजाब को मानसिक भोजन की सख्त जरूरत है और यह पण्डित जवाहरलाल नेहरू से ही मिल सकता है। इसका अर्थ यह नहीं है कि उनके अन्धे पैरोकार बन जाना चाहिए। लेकिन जहाँ तक विचारों का सम्बन्ध है, वहाँ तक इस समय पंजाबी नौजवानों को उनके साथ लगना चाहिए, ताकि वे इन्कलाब के वास्तविक अर्थ, हिन्दुस्तान के इन्कलाब की आवश्यकता, दुनिया में इन्कलाब का स्थान क्या है,आदि के बारे में जान सकें। सोच-विचार के साथ नौजवान अपने विचारों को स्थिर करें ताकि निराशा, मायूसी और पराजय के समय में भी भटकाव के शिकार न हों और अकेले खड़े होकर दुनिया से मुकाबले में डटे रह सकें। इसी तरह जनता इन्कलाब के ध्येय को पूरा कर सकती है।"
वही पंडित नेहरू ने भी भगत सिंह के विचारों की और उनके आदर्शों की प्रशंसा तब के कांग्रेस बुलेटिन में किया था पंडित नेहरु लिखते हैं-
'यह क्या बात है कि यह लड़का यकायक इतना प्रसिद्ध हो गया और दूसरों के लिए रहनुमा हो गया. महात्मा गांधी, जो अहिंसा के दूत हैं, आज भगत सिंह के महान त्याग की प्रशंसा करते हैं. वैसे तो पेशावर, शोलापुर, बम्बई और अन्य स्थानों में सैकड़ों आदमियों ने अपनी जान दी है. बात यह है कि भगत सिंह का निस्वार्थ- त्याग और उसकी वीरता बहुत ऊंचे दर्जे की थी. लेकिन इस उत्तेजना और जोश के समय भगत सिंह का सम्मान करते हुए हमें यह न भूलना चाहिए कि हमने अहिंसा के मार्ग से अपने लक्ष्य की प्राप्ति का निश्चय किया है. मैं साफ कहना चाहता हूं कि मुझे ऐसे मार्ग का अवलम्बन किए जाने पर लज्जा नहीं होती है, लेकिन मैं अनुभव करता हूं कि हिंसा मार्ग का अवलम्बन करने से देश का सर्वोत्कृष्ट हित नहीं हो सकता और इससे साम्प्रदायिक होने का भी भय है. हम नहीं कह सकते कि भारत के स्वतंत्र होने के पहले हमें कितने भगत सिंहों का बलिदान करना पड़ेगा. भगत सिंह से हमें यह सबक लेना चाहिए कि हमें देश के लिए बहादुरी से मरना चाहिए.'
वैसे भी कांग्रेस उस समय किसी एक परिवार की पार्टी नहीं थी। ना ही वह गांधी परिवार के पास भी आई थी । हां अगर आप लोग के पास की जानकारी हो कि कांग्रेस की स्थापना 1906 में अफगानिस्तान में 4 मुसलमानों ने मिलकर की थी । जिन मुसलमानों में से एक मुसलमान ने अपना नाम बाद में बदलकर मोतीलाल नेहरु कर लिया , तो फिर मैं तो क्या, दुनिया का कोई भी आदमी आप के दिमाग का कुछ नहीं कर सकता ।
भगत सिंह पर चुनावी रोटियां कुछ इस कदर सेंकी जा रही है कि कर्नाटक विधानसभा चुनाव की एक रैली में ही हमारे प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र दामोदर दास मोदी जी ने यह कहा कि " उन्हें जहां तक जानकारी है जब भगत सिंह जेल में बंद थे, कोई भी कांग्रेसी नेता उनसे मिलने नहीं गया " । पहली बात तो यह सवाल ही अपने आप में एक बहुत ही वाहियात और व्यर्थता से भरा हुआ विचार है , कि "कौन नेता किस से मिलने गया ? या कौन नेता किससे मिलने नहीं गया ? या किस नेता ने किसके बारे में बोला ? या किस नेता ने किसके बारे में नहीं बोला"
लेकिन फिर भी प्रधानमंत्री जी की इस बात का जवाब देना जरूरी है । क्योंकि उन्होंने कहा था कि " अगर किसी के पास इसके अलावा सही जानकारी हो तो वह बताए तो मैं सुधार कर लूंगा। "
मैं माननीय प्रधानमंत्री जी की जानकारी के लिए बताना चाहता हूं, 9 अगस्त 1929 को पंडित नेहरु जी न सिर्फ भगत सिंह बल्कि उनके सारे साथियों से मिलने जेल पहुंचे थे । और इस बात का खुलासा उन्होंने अगले ही दिन " द ट्रिब्यूनल " के इंटरव्यू में किया।
पंडित नेहरू कहते हैं- 'मैं कल सेंट्रल जेल गया था। सरदार भगत सिंह, श्री बटुकेश्वर दत्त, श्री जतिन नाथ दास और लाहौर केस के सभी आरोपियों को देखा, जो भूख हड़ताल पर बैठे थे। कई दिनों से उन्हें जबरन खिलाने का प्रयास हो रहा है। कुछ को इस तरह जबरन खिलाया जा रहा है कि उन्हें चोट पहुंच रही है. जतिन दास की स्थिति काफी नाजुक है। वे काफी कमजोर हो चुके हैं और चलफिर नहीं सकते। बोल नहीं पाते, बस बुदबुदाते हैं। उन्हें काफी दर्द है। ऐसा लगता है कि वे इस दर्द से मुक्ति के लिए प्राण त्याग देना चाहते हों. उनकी स्थिति काफी गंभीर है। मैंने शिव वर्मा, अजय कुमार घोष और एल जयदेव को भी देखा ।मेरे लिए असधारण रूप से इन बहादुर नौजवानों को इस स्थिति में देखना बहुत पीड़ादायक था। मुझे उनसे मिलकर यही लगा कि वे अपनी प्रतिज्ञा पर कायम हैं। चाहे जो नतीजा हो। बल्कि वे अपने बारे में जरा भी परवाह नहीं करते हैं। सरदार भगत सिंह ने उन्हें वहां की स्थिति बताई कि कत्ल के अपराध को छोड़कर सभी राजनीतिक बंदियों से विशिष्ट व्यवहार होना चाहए। मुझे पूर्ण आशा है कि उन युवकों का महान आत्मत्याग सफल होगा'।
मेरे मन में भगत सिंह को लेकर कई विचार आए।
क्या भगत सिंह की कहानी का अंत सिर्फ फांसी ही है ?
क्या भगत सिंह की डेस्टिनी बंदूक और गोलियों के साथ जुड़ी हुई है ?
क्या भगत सिंह आज की पीढ़ी के लिए हिंसा की पर्यायवाची है ?
क्या भगत सिंह की किस्मत में ही एक हिंसक व्यक्ति का तमगा दे दिया गया है ?
क्यों भगत सिंह को हर बार फांसी के फंदे, बंदूक या गोलियों या बम के साथ दिखाया जाता है ?
अगर भगत सिंह की कहानी का अंत फांसी ही है , तो फिर उन बयानों का क्या ? उन किताबों का क्या, जो भगत सिंह ने अखबारों में जेल में और कोर्ट में लिखे और दिए ?
क्या उन विचारों का हमारे लिए भगत सिंह से कोई लेना-देना नहीं है ?
क्या हम इतना भी नहीं सोच सकते कि भगत सिंह सिर्फ गोली बंदूक या फांसी के फंदे तक ही सीमित क्यों है ?
जबकि भगत सिंह एक जननायक बन चुके थे। पूरे देश में उनके लिए लोग धरना प्रदर्शन और दुआएं कर रहे थे । और आज भी देश में भगत सिंह को हर कोई अपना आदर्श मानता है । तो क्या लोगों के आदर्श को सिर्फ फांसी के फंदे और बंदूक की गोलियों तक ही सीमित रखना सही है ?
यह बात सही है कि भगत सिंह के जीवन का कुछ हिस्सा बंदूक की गोली और फांसी के फंदे के साथ रहा है। लेकिन वह पूरा जीवन नहीं रहा है । भगत सिंह का पूरा जीवन वैचारिक और तार्किक रहा है। वह किताबों और लेखों में ज्यादा विश्वास करने वाले व्यक्ति थे । और यकीन मानिए भगत सिंह ने जितना नुकसान अंग्रेजों का बंदूक से और पिस्तौल से नहीं किया , उससे कई हजार गुना ज्यादा नुकसान अपने विचारों और अपने लेखों से किया ।
मेरा इस लेख से आप लोगों से एक ही निवेदन है कि आप लोग नेताओं और कथित देशभक्तों के द्वारा बताए गए भगत सिंह पर ही भरोसा ना करें । आप अपने दिमाग लगाएं और भगत सिंह को खुद से जानने की कोशिश करें। और आप लोगों की इस कार्य में मदद खुद भगत। सिंह ही करेंगे , क्योंकि भगत सिंह ने अपने जीवन में एक बहुत ही महत्वपूर्ण कार्य किया , उन्होंने ज्यादा से ज्यादा अपने लेखों को अपने स्टेटमेंट को और अपने भाषणों को लिखित रुप में भी रखने की, और रिकॉर्ड कराने की पूरी कोशिश की।शायद उन्हें इस बात का एहसास था कि भविष्य में लोग उनके विचारों का गलत इस्तेमाल करके अपना उल्लू सीधा करेंगे ।
जब भी भगत सिंह की बात होती है तो हम एक भावनात्मक दुनिया में चले जाते हैं। और तरह-तरह की कल्पनाएं करने लगते हैं। जब की कल्पनाओं से , भावनाओं से और ईश्वर में आस्था से भगत सिंह जी का दूर-दूर तक कहीं कोई लेना-देना नहीं था।
जतिन दास की 63 दिनों की भूख हड़ताल के बाद जब उनकी शहादत हुई, तब भगत सिंह जी ने सुखदेव जी को एक पत्र लिखा । और उसमें उन्होंने एक जो विशेष बात कही। वह यह थी कि "" एक बात जिस पर मैं आपका ध्यान आकर्षित करना चाहता हूं कि , हम लोग ईश्वर , पुनर्जन्म , नरक , स्वर्ग , दंड एवं पारितोषिक अर्थात भगवान द्वारा किए जाने वाले जीवन के हिसाब आदमी कोई विश्वास नहीं रखते ।अतः हमें जीवन एवं मृत्यु के विषय में भी नितांत भौतिकवादी रीति से सोचना चाहिए ।
सोचिए ! जरा कल्पना कीजिए , अगर यही बात भगत सिंह के द्वारा ना कह कर , कोई आज के समय में कहता । तो उसे धर्म विरोधी या राष्ट्र विरोधी तक बता दिया जाता। और ऐसा वही लोग करते, जो भगत सिंह की जयंती पर या पुण्यतिथि पर उनकी मूर्तियों पर मालाएं चढ़ाते हैं । और उनके शहादत को सलाम करते हुए ट्वीट करते हैं ।
ये ऐसे ही लोग है जो यूनिवर्सिटी और कॉलेजों में छात्रसंघ के चुनाव पर रोक लगा देते हैं । और तर्क यह देते हैं कि " विद्यार्थी जीवन में राजनीति का क्या काम" ? जबकि यह जिस को आदर्श मानते हैं, यानी "सरदार भगत सिंह" उन्होंने ही छात्र जीवन से ही राजनीति को बढ़ावा देने का कार्य किया । अपने विद्यार्थी जीवन में ही वह छात्र राजनीति से जुड़े रहे। और जेल के समय में भी उन्होंने इस बात का पुरजोर समर्थन किया, कि " छात्रों को पढ़ाई के साथ-साथ राजनीति में भी आना चाहिए"।
जेल में भी जब भगत सिंह ने भूख हड़ताल की तब , उन्होंने 24 फरवरी 1930 को अपने साथी जयदेव के नाम एक पत्र लिखा । उस पत्र में वह लिखते हैं "" मुझे उम्मीद है कि तुम ने 16 दिन के बाद हमारी भूख हड़ताल छोड़ने की बात सुन ली होगी ? और तुम अंदाजा लगा सकते हो कि इस समय तुम्हारी मदद की हमें कितनी जरूरत है । हमें कल कुछ संतरे मिले लेकिन कोई मुलाकात नहीं हुई । हमारी मुलाकात 2 सप्ताह के लिए स्थगित कर दी गयी है । इसलिए एक टिन घी और एक "क्रेवन " सिगरेट कटिंग भेजने की कृपा करो।कुछ रसगुल्लों के साथ कुछ संतरों का भी स्वागत है। सिगरेट के बिना दल की हालत खराब है। आप हमारी जरूरतों की अनिवार्यता समझ सकते हो ।
आपका
भगत सिंह ""
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